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इमाम हसन सुलह अमन और सुलह का एक नमूना

हज़रत मुहम्मद साहब के बाद अली चौथे जाँनशीन थे। वह हुज़ूर के चचा जात भाई भी थे और आपके दामाद भी थे। हुज़ूर ने अपनी बेटी का उनसे निकाह कर दिया था। फातिमा के दो बेटे हसन और हुसैन थे इन दोनों नवासो को हुज़ूर बहुत चाहते थे। हुज़ूर के बाद अली जब आपके चौथे जाँनशीन हुए तब सीरिया और उसके आसपास के पूरे इलाके के गवर्नर हज़रत माविया थे। कुछ कानूनी और राजनीतिक बातें ऐसी पैदा हो गई के माविया ने अली को खलीफा मनाने से इंकार कर दिया। नौबत यहाँ तक पहुँची के दोनों के दरमियान जंग हुई और बड़ी तादाद में दोनों तरफ के फौजी मारे गए। सुलह की कोशीशे भी हुई मगर कोई नतीजा नहीं निकला। इस तरह दोनों अपनीअपनी हदों में खुदमुख्तार हुक्मराँ बने रहे और फिर जल्द ही एक शख्स ने धोखे से हज़रत अली को भी कत्ल कर दिया और उनके बाद उनके बड़े बेटे हसन यानि हुज़ूर के बड़े नवासे उनकी जगह पर हुक्मराँ बन गए। उनका एक बहुत बड़ा कारनामा यह हुआ के एकतरफा तौर पर बगैर किसी शर्त के माविया के हक़ में हुकूमत से दस्तबरदार हो गया और उन्होने माविया को लिख भेजा के अगर हुक्मरानी के आप हकदार हैं तो में यह समझूँगा के आपको आपका हक़ मिल गया और हुकूमत करने का ज्यादा हक़ मेरा है तो में अपनी तरफ से आपको तोहफा देता हूँ।

यह वाकिया इस्लाम की इबातिदिया तारीख का बहुत बड़ा वाकिया है जिसको पूरी मुस्लिम दुनिया और अंग्रेज़ मौरिख भी मानते है और तमाम मुसलमान इसे अमन व सुलह के लिए बहुत बड़ा तस्लीम करते है और यही कुरान की भी तालीम है। इसी तालिम पर मुहम्मद साहब ने भी अमल किया मगर अफसोसनाक बात है कि वक़्त गुजरने के साथ मुसलमान इस आदर्श को भूलते चले गए और मौका पाते ही ऐसे गिरोह और कबीले उठते रहे जिन्होने इस्लाम के नाम पर हुकूमतों पर कब्जा करने का शौक पूरा किया और इस शौक की कीमत हजारों इन्सानों के कत्ल से चुकाने पड़ी थी। आज तक सारे मुसलमान हज़रत हसन का नाम बहुत एहतराम से लेते हैं मगर कहीं भी यह चर्चा नहीं होती कि उन्होने अमन व सुलह को मजबूत करने के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दी।

इस्लामी तारीख में एक दूसरा पहलू ऐसा है जिसे कुछ मुस्लिम तबकों ने पूरी ताकत के साथ हमेशा जिंदा रखा वह यह है कि अगर किसी मुस्लिम हुक्मराँ की ज़िंदगी इस्लाम से कुछ हटी हुई नज़र आई तो उसके खिलाफ मुस्ललाह टकराव किया गया और कभी ऐसा भी हुआ के इन बातों को बहाना बनाकर मुकम्मल नज़रयात गढ़ लिया गया। जिनका असल इस्लाम धर्म से कोई ताल्लुक नहीं था। इसी तरह ऐसा भी हुआ कि कुछ मजहबी लोग ऐसे भी उठते रहे जो अपनी नियत के एतबार से सही थे मगर वह बड़ी ताकतों के खिलाफ हथियार उठाते वक़्त बिलकुल समझ नहीं पाये कि किसी भी हुकूमत का छोटा सा फौजीदस्ता उनको खत्म कर सकता है। इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल 18 वीं सदी में उन्होने मज़हबी लोगों का एक ऐसा तबका इक्टठा कर दिया जिनको यह धुन सवार थी कि जिहाद करके किसी भी इलाके में इस्लामी हुकूमत कायम की जाए। इस मक़सद के लिए वह अफगानिस्तान गए और यह इरादा था कि उनको साथ लेकर पंजाब के राजा से जंग की जाए। मगर अजीब बात यह है कि उन्ही अफ़गानियों पर जब इस्लामी कानून नाफ़िज़ किए तो यह उन लोगों को बहुत नागवार गुज़रा और नमाज़ की हालत में उन पर हमला करके एक बड़ी तादाद को शहीद कर दिया। बचे हुए लोग पंजाब की तरफ आए तो राजा की फौज ने उनका खात्मा कर दिया यह खुले तौर पर गैरदानिश मदाना अमल था और अपने आपको यकीनी तबाही के लिए पेश करने के बराबर था। मगर कितनी अजीब बात है कि आज कुछ औलामी और दरमियानी किस्म के पढे लिखे लोग मुसलमानों के लिए खुद को आदर्श के रूप में पेश करते है। हम किसी का नाम नहीं लेना चाहते मगर जानने वाले सब कुछ जानते है। इस दुनिया में सारे मामलात दुनिया मासाइल और जराए की बुनियाद पर ही होते हैं। ताकतों का तवाजुन (बैलेन्स) पहली और बुनियादी शर्त है। और उस वक़्त की इस्लाम की बुनियादी तालिम तो यही है कि टकराव को हर कीमत पर टाला जाए और सुलह की हालत पैदा की जाए। कुछ लोग बड़े जोश के साथ जंगे बर्द की मिसाल पेश करते हैं मगर वह यह भूल जाते है कि उससे अल्लाह की तरफ से अपने पैगंबर को कामयाबी के लिए खुसूसी मदद हासिल थी। मगर बड़ी से बड़ी तबाही के बाद भी ऐसे लोग कुछ भी बात बना देंगे मगर इसे गलती मानने की हिम्मत नहीं करेंगे। इसलिए जरूरत है कि दानिश मंद औलमा इस बात को अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारी समझे कि तबाही के कदम को जिहाद करार ना दें।

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