आज–कल कुछ उलेमा अपने–आप को इस्लाम का मुअज्जि बताने वाले और मज़हवी इदारें फ़िक/वली–अल–फ़कीह को अपने हिसाब से बताकर फतवे जारी कर रहे है। यूँ तो ये फतवे आम मुसलमानों को सही रास्ता दिखाने और कुरान पाक की रौशनी में उनकी जिम्मेदारियों को खुलासा करने के लिए होते हैं पर उलट इसके यह तबके को या तो गुमराह करते हैं और कभी–कभी बदगुमानियाँ भी फैलाते है। कुछ कट्टरवादी और अतिवादी फतवे तो फितना और आपसी बैर को भी बढ़ावा दे कर मज़हवी खाइयाँ पैदा कर देते हैं जिससे कि मुल्क की अंदरूनी हिफाज़त को भी खतरा होता है। ऐसे ही उकसाने वाले फतवों के कारण मिस्र के राष्ट्रपति अनवर शादाब की हत्या, अल्जीरिया/ट्यूनेशिया/यमन आदि मुल्कों में हजारों बेकसूर लोगों कि हत्या तथा ढेरों इस्लामी आतंकी पैदा हो गए जिससे पूरी दुनिया में अमन–चैन को खतरा हो गया। इन फतवों द्वारा फैलाए जा रहे रैडिकलाइज़ेशन से ‘जिहाद’ का गलत मतलब निकाल कर इसे बुराइयों के इतर एक लड़ाई की जगह इस्लाम को ताकत/जबरदस्ती फैलाने का हथियार बना दिया गया है। इन्हीं फतवों के कारण इस्लाम को एक हिंसावादी मज़हब के रूप में देखा जाने लगा है तथा मुसलमानों को मज़हबी, पिछड़ेपन और कट्टरता का रूप माना जाने लगा है।
अब वक्त आ गया है कि सभी मुसलमान चाहे वो मज़हबी आलिम हो, नेता हो या तबके के मौज़िज/रास्ता दिखाने वाले हो, सबको कोशिश करनी होगी कि ऐसे फितनाई/कनफ्यूशन करने वाले फतवों और उन्हें जारी करने वालों को नज़रअंदाज करें और साथ ही साथ लगाम लगाने के इल्म भी करे।