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बहराइच हिंसा: सांप्रदायिकता बनाम सद्भाव

उत्तर प्रदेश के बहराइच में मूर्ति विसर्जन के दौरान दो समुदाय में बवाल हो गया और इसमें एक व्यक्ति की जान चली गई। इसके बाद गुस्साई भीड़ ने तोड़फोड़ और आगजनी शुरू कर दी। बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के बीच बड़ी तादाद में सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं।

तमाम प्रयासों और आधुनिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विस्तार के बाद भी त्योहारों पर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं कमोबेश दिखायी पड़ जाती है और इन सभी घटनाओं में अक्सर पैटर्न दिखाई पड़ता है कि एक समुदाय विशेष के लोगों के धार्मिक यात्रा में दूसरों समुदाय विशेष के लोगों के द्वारा पथराव कर दिया गया और हिंसा भड़क उठी ।

जब इन घटनाओं को गौर से देखेंगे के तो ये पूरा मामला सामुदायिक/सामाजिक दूरी का, संवेदनहीनता का और मनुष्यता के गिरते स्तर का परिचायक है अतः इन घटनाओं को समग्रता में देखे जाने के ज़रूरत है। ये घटनाएँ क्रिया और प्रतिक्रिया के आदिम नियमों से संचालित होती मालूम पड़ती है और प्रारंभिक क्रिया संभवतः उत्तेजनापूर्ण हो उकसाने वाली हो लेकिन प्रतिक्रिया करने वाला समूह निःसंदेह भावुक और आवेशित होकर प्रतिक्रिया करता है ।दोनों पक्षों को यह समझना चाहिए कि भीड़ द्वारा और कुछ अतिआवेशित आक्रामक युवकों द्वारा लिया गया क्षणिक निर्णय सदियों के सद्भाव को एक पल में खत्म कर सकता है।

इसके साथ ही कानून व्यवस्था का पहलू भी अहम हो जाता है ।घटना होने के पश्चात उसको नियंत्रित करने से बढ़िया है कि उसके निवारक उपायों पर ध्यान दिया जाय। ऐसे क्षणों में, इन घटनाओं को रोकने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए अपने साझा अतीत पर विचार करना और उन मूल्यों को याद रखना अनिवार्य है, जो कभी उन्हें एक साथ बांधते थे। भारतीय उपमहाद्वीप धार्मिक और सांस्कृतिक संलयन की गहन विरासत का घर है। गंगा-जमुनी तहजीब शब्द, उत्तरी भारत में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रों में मिश्रित संस्कृति का प्रतीक है, जो सद्भाव की इस भावना को दर्शाता है। ‘भारतीय संस्कृति’ जो ना तो पूरी तरह से हिंदू संस्कृति है, ना ही मुस्लिम संस्कृति बल्कि अनेकों संस्कृतियों और जीवन विधियों का समन्वय है, विभिन्न समुदायों की निकटता को दर्शाता है। यह मुल्क हिंदू और मुस्लिम परंपराओं का एक अनूठा मिश्रण है, जहां त्योहार, प्रथाएं और अनुष्ठान धार्मिक सीमाओं को पार करते हैं। दिवाली और ईद को साथ-साथ मनाने से लेकर सूफी संतों और भक्ति कवियों के प्रति समान सम्मान तक, समन्वयकारी संस्कृति सह-अस्तित्व और परस्पर सम्मान पर पनपी है। यह लोकाचार केवल साझा अतीत के बारे में नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे भविष्य की दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है, जहां विविधता को विभाजन के कारण के रूप में देखने के बजाय विविधता का उत्सवगान किया जाता है। यह वह विरासत है जिसे हमें संघर्ष और तनाव के बावजूद नहीं भूलना चाहिए। संकट के समय में भावनाओं को हावी होने देना आसान होता है लेकिन हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि एक-दूसरे की धार्मिक मान्यताओं के प्रति सम्मान, शांति और सामाजिक सद्भाव की नींव है। चाहे वह मंदिरों या मस्जिदों, त्योहारों या अनुष्ठानों के प्रति श्रद्धा हो, हर विश्वास सम्मान का हकदार है। सच्ची आस्था इस विविधता को पहचानने और उसका मूल्यांकन करने में निहित है ना कि विभाजन के साधन के रूप में इस्तेमाल करने में ।यह सम्मान केवल सहिष्णुता से आगे बढ़कर दूसरे का जश्न मनाने के बारे में है। हिंदू और मुस्लिम हमेशा से एक-दूसरे के धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों में भाग लेने के तरीके खोजते रहे हैं। हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करने की सूफी परंपरा और हिंदू मंदिरों पर इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव इस बात के कुछ उदाहरण हैं कि ये समुदाय किस तरह आपस में जुड़े हुए हैं। प्रसिद्ध सूफी संत सैयद सालार मसूद गाजी से जुड़े शहर बहराइच में यह विरासत और भी स्पष्ट है। इन तनावों के बीच, उन लोगों से सावधान रहना ज़रूरी है जो अपने फ़ायदे के लिए नफ़रत फैलाना चाहते हैं। नफ़रत फैलाने वाले, चाहे वे राजनीतिक अवसरवादी हों या कट्टरपंथी तत्व, विभाजन पैदा करके फलते-फूलते हैं। वे अक्सर भावनाओं को भड़काने के लिए स्थितियों का फ़ायदा उठाते हैं, जिससे हिंसा का ऐसा चक्र शुरू होता है जिससे किसी को कोई फ़ायदा नहीं होता। भड़काऊ भाषणों, अफ़वाहों या दुष्प्रचार से प्रभावित होना आसान है, खासकर सोशल मीडिया के ज़माने में जहाँ सूचना, चाहे सच हो या झूठ, जंगल में आग की तरह फैलती है। हमें याद रखना चाहिए कि सच्ची ताकत नफरत की इन आवाज़ों को खारिज करने में निहित है। हिंसा को अपने रिश्तों को परिभाषित करने की अनुमति देने के बजाय, हमें संवाद, सहानुभूति और समझ पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आक्रामकता का हर कृत्य केवल उन लोगों के एजेंडे को आगे बढ़ाता है जो हमें विभाजित करना चाहते हैं। सद्भाव के लिए संवाद की आवश्यकता होती है और यह आपसी संवाद नागरिक समाज की सक्रियता के जरिये हासिल किया जा सकता है ।आज वक्त की जरूरत है कि ‘नागरिक राष्ट्र’ के मदद के किए ‘नागरिक समाज’ अपनी सक्रिय भूमिका के साथ आगे आए और अपने परिवार की भाँति अपने समाज के युवाओं को सही रास्ता दिखाए ।धार्मिक उन्माद और धार्मिक विश्वास (अध्यात्म) के मध्य के अंतर को अपने-अपने समुदाय के युवाओं तक आसान भाषा में पहुचाये ;और स्वधर्म के ऐसे तत्वों पर जोर दे जो जोड़ने का काम करती हो ना को तोड़ने का ।नहीं तो एक ऐसा दिन आएगा जब केवल धर्म बचेगा और धार्मिक अनुयायी के बजाय जॉम्बी शेष रहेंगे।

हिंसा के बाद एक और महत्वपूर्ण सबक यह है कि कानून के शासन पर भरोसा करना ज़रूरी है। किसी भी सभ्य समाज में न्याय कानूनी तरीकों से ही मांगा जाना चाहिए, न कि भीड़ की कार्रवाई से। हिंसा और भीड़ का न्याय केवल अराजकता और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने का कारण बनता है। भारत की कानूनी व्यवस्था अपने आप में इतनी सशक्त है कि इसके द्वारा आरोपियों को सजा और पीड़ितों को आसानी से न्याय दिलाया जा सकता और सभी नागरिकों के लिए न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है । भीड़ की हिंसा का सहारा लेने से न केवल कानूनी प्रक्रिया कमज़ोर होती है, बल्कि अराजकता भी फैलती है जो विभाजन को और गहरा करती है। हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि वह, चाहे किसी भी धर्म का हो, इस व्यवस्था पर भरोसा करे और जहाँ आवश्यक हो वहाँ इसे बेहतर बनाने के लिए काम करे न कि कानून को अपने हाथ में ले। कानूनी रास्ता चुनकर, हम यह सुनिश्चित करते हैं कि शिकायतों का न्यायोचित तरीके से समाधान किया जाए और हिंसा भड़काने या अपराध करने के लिए ज़िम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाए। कोई भी शिकायत, चाहे वह कितनी भी जायज़ क्यों न लगे, हिंसा के ज़रिए नहीं सुलझाई जानी चाहिए। यह न तो शांतिपूर्ण समाज का तरीका है और न ही हिंदू और मुस्लिम दोनों के मूल्यों का सही प्रतिनिधित्व है।

बहराइच हिंसा के बाद, दोनों समुदायों के लिए एक साथ आना ज़रूरी है न सिर्फ़ घाव भरने के लिए बल्कि ऐसी घटनाओं को फिर से होने से रोकने के लिए भी। दोनों धार्मिक समुदायों के नेताओं को संवाद में शामिल होना चाहिए, विश्वास बनाने पर काम करना चाहिए और अपने अनुयायियों को उस साझा संस्कृति की याद दिलानी चाहिए जो उन्हें बांधती है। नागरिक समाज, मीडिया और शैक्षणिक संस्थानों को भी विभाजनकारी आख्यानों का मुकाबला करने और एकता की कहानियों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि जो हमें एक साथ बांधता है वह हमें विभाजित करने वाली चीज़ों से कहीं ज़्यादा मज़बूत है। हिंदुओं और मुसलमानों ने सदियों से एक समृद्ध, साझा विरासत का निर्माण किया है और हिंसा की कोई भी घटना या अवधि इसे मिटा नहीं सकती। हिंसा के बजाय शांति, सम्मान और कानूनी उपाय चुनकर, हम न सिर्फ़ अपने अतीत का सम्मान करते हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित करते हैं।

-प्रो बंदिनी कुमारी

लेखिका समाज शास्त्र की प्रोफेसर हैं और उत्तर प्रदेश के डिग्री कॉलेज में कार्यकर्ता हैंI

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