मुसलमान क़ौम के कुछ तबकों में बढ़ते मजहवी कट्टरपन और फितनाई सोच को नकारने और सुधारने के लिए क़ौम को शायद खोजी, मशवराई और नई–नई सोचों को बढ़ावा देने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि आलियों, मजहवी नेताओं, इस्लाम की व्याख्या करने वाले और तबके के मुआजिज लोगों को फौरी तौर पर रेडिकल, अन्धवादी और अलगाववादी विचारधारा का विरोध करना होगा और साथ ही साथ फारसी इल्मियों/सूफीवादियों की वहादत–ए–वजूद (दुनिया बनाने/चलाने वाला एक ही है, गरचे उसे खुदा, जहोबा, भगवान जरस्त्रुत आदि नामों से बुलाए। वह अपने बनाए हुए सभी इंसानों को बराबर प्यार करता है) को बढ़ावा देना होगा। उन्हें मजहवी किताबों की 7वीं सदी की जगह 21वीं सदी के हिसाब से व्याख्या करनी होगी। उदाहरण के तौर पर 6ठी-7वीं सदी में गुलामी और औरत को दौयम दर्जे पर रखने की परंपरा पूरी दुनिया में थी। अमेरिका, यूरोप और बहुत से मुल्कों में इनके खिलाफ आवाज उठाई गई और आखिर में ये दण्डणीय अपराध बना दिए गए। अब भी ज्यादातर इस्लामी मुल्क और आतंकी संगठन इनको सही मानते है, जिससे कि इस्लाम की कट्टरवादी तस्वीर को बढ़ावा मिलता है और दुनिया में मुसलमानों को हिंसावादी और कबीलाई रूप में देखा जाता है। जरूरत है कि पूरा तबका लोजिक और नई सोच को अपनाए, साथ ही साथ इस्लाम की अमनपसन्दी, भाईचारे और इन्सानी मोहब्बत की सच्ची तस्वीर दुनिया में पेश करे।
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