मौजूदा दौर में मुख्तलिफ़ मज़हब वालों के दरमियान आपसी समझ और एक दूसरे समाज को करीब लाने के लिए कई मजाहिब के औलामा व दानिशवरों के दरमियान डायलॉग का रिवाज है। यह प्रोग्राम आलामी सतह पर भी होते है मुल्की सतह पर भी और मक़ामी सतह पर भी होते हैं। यह काम कुछ इदारे भी करते है और कुछ तंजीमों और कॉलेजों में भी होते है। में भी नेशनल, इंटरनेशनल और कॉलेजों के प्रोग्राम में शरीक हुआ हूँ। ज्यादा इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई मज़हब के आलिम और दानिशवर शरीक हुए। वे अपने–अपने मज़हब के उन पहलुओं और उन तालीमात को बयान करते हैं जो तमाम इन्सानों की भलाई और उनमें आपस में भाईचारा पैदा करने के लिए मुफीद है। मुझे लगा के माहौल में कभी–कभी कुछ कड़वाहट पैदा हो जाती है इसे दूर करने के लिए यह एक बहुत अच्छा जरिया है।
मेरा ख्याल है कि औलामा और इसके जिम्मेदार अस्हाब और कौम के मुसलमान दानिशवरों को भी इस मैदान में एक बड़ा रोल अदा करना चाहिए। कभी–कभी अपने आवामी प्रोग्रामों में दीगर मजाहिब एक–दो विद्वानों को बुलाना काफी नहीं है। इस काम को एक मुहिम बनाकर करना चाहिए यह प्रोग्राम अपने खुद मुकर्रर किए हुए उनवान पर नहीं होते यह इंटरफेथ, रिलीजन्स के नाम से किए जाते हैं और हर मज़हब का मुकर्रर अपने मज़हब की वह बातें बतलाता है जो तमाम इन्सानों से मोहब्बत और उनसे हमदर्दी रखने को कहता है। इस तरह हमें खुद अपने मज़हब–ए–इस्लाम के सही तआरुफ़ का मौका हासिल होता है। हम अगर अपने तलबा और असातजह और दीगर स्टाफ के लिए भी ऐसा जलसा करे तो हमारे तलबा को दीगर मजाहिब की मालुमात होगी और आने वाले दीगर मज़हब के दानिशवरों को सारे मज़हब की मालुमात होगी। और जो प्राइवेट कॉलेज और स्कूल मुसलमानों के जरिये चलाए जाते है वहाँ ऐसे जलसों से हर मज़हब के तलबा और असातजहा को अपनी सोच मुस्बत सोच बनाने में मदद मिलेगी।
हमारे बड़े इदारों के जिम्मेदार अगर चाहे तो कुल–हिन्द सतह के इंटरफेथ रिलीजन्स के सेमिनार कर सकते है। इनके पास वसाइल भी है और उनकी हैसियत भी कुल–हिन्द हैसियत है इस तरह मज़हब और इंसानी रिश्तों के दरमियान कितना करीबी ताल–मेल से बहुत अच्छी तरह सामने ला सकेंगे। कोई भी मज़हब वाला यह बात नहीं कह सकता के इसके मज़हब में दूसरों के लिए नफरत और कड़वाहट है। और यही हक़ीक़त भी है। इसे सब लोग जानते भी और समझते भी हैं। लेकिन इसका असली फायदा तब मिलेगा जब मुख्तलिफ़ मजहबों के लोग मुशर्तक जलसों में ऐसी बातें बोलें इनकी चर्चा हो और वह प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक भी जाये तब समाज में मुहब्बत का पैगाम जाएगा और किसी भी मज़हब का कोई नफरत की बात करेगा तो उन विद्वानो की बातें इस पर भरी पड़ेगी।
हमारा कसीर उल मज़हब और कसीर उल इंसान मुल्क है। पूरी दुनिया में इस बात को एक अजूबा समझा जाता है। मगर कुछ सस्ती शौहरत हासिल करने वाले और खुदगर्ज़ लोग एक दूसरे से अलग करने की बातें करते है। ऐसा होने एक फ़ितरी बात है मगर अच्छी सोच वाले लोग खामोश रहते है। तब ही इन लोगो को कामयाबी मिलती है। अगर पॉज़िटिव सोच के लोग सामने आते रहे तो यकीनन हमारा समाज इनका असर कबूल करेगा।
हर मज़हब के इंसान की अपनी तमाम बुनियादी जरूरतें एक जैसी हैं। सब आपस में मोहब्बत पसंद करते है। इस तरह हम अगर मुहब्बत की बात करते है तो वह दिलों को छु लेने वाली बात होती है। नफरत की बातें इंसानी फितरत के खिलाफ है और वह किसी वजह से उभर जाती है। इसलिए यह हम सबकी ज़िम्मेदारी भी है। हम इन्सानों के इंसानियत वाले शऊर को बेदार करने के लिए मैदान में आते रहे।
अल्लामा इक़बाल का यह शेर हमारी ज़बानों पर बार–बार आता है कि जो दिलों को फतह कारले, वह ही फातेह–ए–जमाना। मगर दिलों को फतह करने के लिए हमें कुछ सरगर्मी तो दिखनी ही पड़ेगी।