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हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूव ए इलाही

सुल्‍तानुल मशाइख ख्‍वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्‍लाह अलैह शैख़ फरीदुद्दीन गंज शकर के खुलेफा में से थे। आपका नाम मोहम्‍मद बिन अहमद बिन अली बुखारी और आपका लक़ब सुलातानुल मशाइख निज़ामुद्दीन औलिया था। अल्‍लाह पाक की बारगाह में महबूब और मुकर्रब थे। आपकी बरकतों के प्रभाव से भारत लबरेज है। पिता के दुनिया से चले जाने के बाद आपकी माता ने आपको एक मदरसे में दीनी तालीम प्राप्‍त करने के लिए दाखिल कराया, जहॉं आपने कुरआन पाक के अलावा दूसरी दीनियात पढ़नी शुरू की चूँकि इल्‍में मंतिक में माहिर थे इसलिए दुसरे छात्र आपको निज़ामुद्दीन मंतिकी कहा करते थे।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने बाबा फरीदुद्दीन गंज शकर से अर्ज किया कि ‘क्‍या अब शिक्षा छोड़ कर इबादत में लगा रहूँ’ तो जवाब मिला ‘मैं किसी को शिक्षा से नहीं रोकता यह भी करो वह भी करो’ फिर फरमाया, ‘दरवेश के लिए ज्ञान आवश्‍यक है ताकि वह शैतान के फरेब से सुरक्षित रहे’ (महफि़ल ए औलिया)। जब इंसान को कोई शख्‍स तकलीफ दे, कोई चीज छीन ले तो उसे बद्दुआ नहीं करनी चाहिए बल्कि दांत पीस कर रह जाना चाहिए ताकि उसका उद्देश्‍य प्राप्‍त हो जाए और अल्‍लाह पाक अपने बंदों के इकबाल को बड़ी अच्‍छी तरह जानता है।

सदके में पांच शर्तें हों तो बेशक सदका कुबूल होता है। उनमें से दो अता से पहले, दो अता के समय और एक (अता के) बाद में होती है। अता से पहले की दो शर्तें (यह) हैं: पहला: जो कुछ दे वह हलाल की कमाई हो। दोसरे: किसी नेक मर्द को दे जो उसे बुरे कार्य में खर्च ना करे। अता के समय की दो शर्तें यह है: पहला: तवाज़ों और हंसी खु़शी से दे। दोसरे: छुपा कर दे। बात की शर्त यह है कि जो कुछ दे उसका नाम ना ले बल्कि भूल जाए।

एक बार महबूबे सुबहानी ख्‍वाजा निज़ामुद्दीन औलिया ने फरमाया कि एक घटना में मुझे खत दिया गया जिसमें लिखा था कि जब तक और जितना संभव हो लोगों के दिलों को आराम पहुँचाओं क्‍योंकि मुसलमान का दिल वास्‍तव में खुदा के ज़हूर का मकाम है, कीमत के बाज़ार में कोई सामान इतना मकबूल नहीं होगा जितना दिलों को आराम पहुंचना मकबूल है। (अख्‍बारुल अखियार)

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